Pratyabhigya Tantra Or pratyabhigya Vimarshini Lecture series (A Helping hand to shiva sutra)

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|| श्री गुरु:।। || शाम्भवोपाय | |


विमरशिनीटोकोपेता

मानमपि उत्तरकालं प्रमाव्यापारानुवृत्तिरूपस्य स्थेर्थस्य उन्मूलनेन द्विचनद्रो नास्ति" इत्येवंरूपेण असत्यम्‌, इह पुनः "चलति चेत्र: इत्येवंभूतो विमं: अनुवतंमानो न केनचित्‌ उन्पल्यमानः संवेद्यते, दिचन्द्रादि च यद्यपि ह्वादोद्रेणयोः उपयुज्यते, तथापि हिचन्द्राभिमानी न तावतीं तत्र अर्थक्रियाम्‌ अभिमन्यते अपि तु यादृक्ली एकेन ्क्िना कतंन्या--तिमिरापसारणादिरूपा, तादृश्येव अपरेण, इति न तद्विगुणाम्‌ अथेक्रिथाम्‌ तत्र अध्यवस्यति, तस्यां च असौ न उपयुज्यते, बरज्यायां तु यामेव ग्रासप्राप्निम्‌ अध्यवस्यति तस्याम्‌ अविकलायाम्‌ उपयोगोऽस्या, इति-- स्थेयात्‌ उपयोगच्च एकानेकरूपक्रियातत्तवालम्बना बुद्धिः सत्यैव, एवं संबन्धादिषुं कालपर्यन्तेषु वाच्यम्‌ उत्तरकारिकासु स्फु टीभविष्यति ॥ १॥

ननु एकत्वम्‌ अनेकत्वं च परस्परं विरुद्धे, कथम्‌ एकत्र वस्तुनि स्यातां, ततश्चायं बाधक- प्रमाणङतः स्थे्येन्मूलनप्रकारः ? इत्याश्ङ्चाह-

तत्रेकमान्तरं तत्त्वं तदेवेन्दरियवेद्यताम्‌ । संप्राप्यानेकतां याति देशकालस्वभावतः ॥ २ ॥

इह तावत्‌ चेतरे चरति दृष्े न जातुचित्‌ न चलति अयम्‌ इति बुद्धिः जायते-न रजतम्‌ इतिवत्‌, द्विचनद्रेऽपि नायं दविचन्द्रः तिमिरवन्ञात्‌, अहम्‌ उपप्ल्‌ तनयनः परम्‌ एवं वेद्ध इति भवति

ही पारमार्थिक कही जाती है किन्तु द्विचन्द्रादि तो वैसा भाममान होता हुआ भी उत्तरकाल में यथाथं प्रमाज्ञान के हो जाने पर उन्मूलित हो जाता है, जिससे "द्विचन्द्रो नास्ति' एेसा बोध होने लग जाता है इसी कारण असत्य माना जाता है, क्रिया मे तो चलति चैत्रः" अर्थात्‌ चैत्र जाता है, एेसा जो विमशं होता है उसका उन्मूलन कोई कभी भो नहीं करता हुआ जाना जाता है । यद्यपि द्विचन्द्रादि अनन्द एवं उसके अभाव उद्रेग का उपयोगी होता है, तो भी द्विचन्द्रादि" का अभिमान करनेवाला मानता है किं यह्‌ द्विचन्द्रः' है, उतनी अर्थक्रिया का उसमें अभिमान नहीं रहता; जितनो एक चन्द्रमा से अन्वकार दुर करना रखता है, वैसी दूसरे चन्द्रमा से नहीं होती, दुगुनी अथंक्रिया 'ध्रका्' देने मे उसे विद्वास नहीं होता; क्योकि वह इसके किए उपयोगी नहीं है, इसीलिए उसमे असत्य वृद्धि उत्पन्न होती है, किन्तु चेत्र विषयक गमन में तो ग्राम की प्राप्ति में अथंतक्रिया प्रत्यक्ष फलक के रूप में दिखायी देती है, उपयोग भी तो अथंक्रिया का सत्य अविकल दै, इसकिए स्थेयं ओर उपयोगी होने के कारण एक ओर अनेकरूप क्रियातत्त्व का आुम्बन करनेवाली वुद्धि सत्य ही होती है, इस प्रकार सम्बन्धादि से लेकर काक पयंन्त कहना चाहिए यह्‌ बात हम आगे कारिकां में स्पष्ट करेगे ॥ १॥

अब प्रन करते हैँ कि एकत्व ओर अनेकत्व इन दोनों का स्वभाव परस्पर विष सा ही कगता है; एक हौ वस्तु मे दोनों केसे रह पार्येगे ? इसलिए स्थिरता के खण्डन करने का प्रकार बाधक मूलक है ? इस पर आशङ्का कर कहते है

उसमें एक ही आन्तरीय तत्व इन्द्रियों के द्वारा वेद्य होकर देश ओर काल के स्वभाव मेद से अनेकरूपता को प्राप्त कर्ते है| २॥

चैत्र चलता है--इस प्रकार देखने पर नहीं कह सकते हो कि यह्‌ नहीं चरता है; एेसी वद्धि नहीं उत्पत्न होत, जेसी शुक्तिका को देखने पर यह्‌ रजत नहीं है, दो चन्द्रामा को भी देख

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