A Short Course on Para Praveshika (Hindi)
|| श्री गुरु:।। || शाम्भवोपाय | |
विश्वात्मिकां तदुत्तीर्णा हृदयं परमेशितुः, परादि शक्तिरूपेण स्फुरन्ती संविदं नुमः।।
अर्थ-संविद- संवित् भाव को अर्थात् ज्ञान क्रिया के नित्यस्पन्दन स्वरूप परमशिव को, (मे) नुमः-प्रणाम करता हूं, अभेद संवित् भाव मेँ प्रवेश करता हूं, अर्थात् उसी संवित् भाव में मेरी प्रतिष्ठाहो जो विश्वात्मिका -एक साथ ही विश्व मेँ विकसित (जगद्रूप) भी है तदुक्तीर्णा-ओर उस विश्वात्मिक भाव से परे भी है। अर्थात् जन हम इस संवित् को भेददृष्टि से देखें तो यह संवित्, जिसे हम अपनी मातृभाषा कश्मीरी मे जान" कहते हैँ, विश्वात्मिक है। जब हम अपने मे हदयदृष्टि लासके तो यह संवित् विश्वोत्तीर्ण है ।
विश्व क्या है? प्रमाता ओर संकुचित जीव प्रमिति का (11711160 1101५100] [८1०५५1९€५९६) जथवा कर्ताओं (ऽ0)६८15) ओर कर्मो ((001६८{8) या कार्य (7६८18) ओर कारणों का (20965) पुतला हौ विश्व है। इसमें कार्य भी संवित् भाव है ओर कारण भी संवित् भाव है। संवित् ने ही कार्यको कार्य ओर कारण को कारण कहा। शरीर या बुद्धि ने इसकी जानकार नहीं कराई। यह संवित् ही है जो किसी विशेष कारण के लिए किसी विशेष कार्य को बनाती है। यदि तात्विक दृष्टि से देखा जाय तो यह संवित् न विश्वात्मिक हे न विश्वोत्तीर्ण ही हे। यह न अधिक है न कम है। यह संवित् संवित् ही है। हमारी विचारधारा ही इसके स्वरूप मे अन्तर लाती हे। भेदभाव से यदि इसे देखें तो यह विश्वात्मिका रूपवाली बनती
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| ओर यही सद्गुरु की कृपा से अनुगृहीत साधकं के लिए विश्वोत्तीर्णं रूप धारण करती है। जहां अभेद दर्शन है वहां पदार्थो का निर्णय कराने वाली संवित् संवित् ही है ओर जहां भेद दृष्टि है वहां भी संकुचित संवित् संवित् ही है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि स्वात्मप्रथा या अपने वजूद की चेतना को ही संवित् कहते है । यह संवित् चाहिये भेदभाव पर हो, भेदाभेद भाव पर हो, या अभेदभाव पर हो यह एक ही है। यह संवित् हदयं परमेशितुः-परम ईशितुः- सर्वश्रेष्ठ परमशिवभाव का या अभेदभाव का, हृदयं-हदय है। हदय का, “हदि अयोगमनं ज्ञानम्" अर्थ करने पर इस शब्द के अर्थकी सीमा का विस्तार होता है। कहने का तात्पर्य यह हे कि जब हम किसी से वार्तालाप करते है तो उस समय हमारी संवित् हमसे निकलकर श्रोता (हमारी बात को सुनने वाले व्यक्ति) तक पहुंची है। कोई अन्य व्यक्ति भी इसी समय कुक ओर कहने बेठता है तो उसकी संवित् उस समय मुञ्च में प्रवेश करती है। जो म बोल रहा हुं वह भी बाहिर प्रकट हो रहा है, जो मेँ सुन रहा हूं वह भी मेरे मे आ रहा है। यह अन्तः स्पन्दन (४112110) भी दै ओर बहिः स्पन्दन भी है। इन दोनों स्पन्दनोँ का उत्पत्ति स्थान (ऽ०प्रा८८) ओर विश्रान्ति स्थान (1651118 [1३८८) संवित् भाव ही है । इसी को शेवशाख्त्र में हदय का नाम दिया है । "'प्रत्यभिज्ञा हृदय '' नामक शोवग्रन्थ मे भी हदय को “संवित् एव हदयम्"' कहकर दस बात की पुष्टि कर दी गई है कि संवित् ही हदय है जो स्वयं कहने के समय बाहिर निकलती है ओर सुनने के समय प्रवेश करती है, किसी बाह्य शक्ति या धक्के के विना। यहां इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि संवित् को परमशिव का हदय कहकर, परमशिव ओर हदय को परस्पर भिन्न नहीं समञ्लना चाहिए। जो परमशिव है
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