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Shri Vigyan Bhairava Full Course (Hindi)

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Shri Vigyan Bhairava Full Course (Hindi)

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|| श्री गुरु:।। || शाम्भवोपाय | |

विज्ञान भैरव तन्त्र (भेरव-भैरवी सम्वाद)

केवल यह चेतन आत्मा ही सत्स्वरूप है, अन्य सभी मिथ्या हैं। इस सत्य को जो ठीक से जान लेता है वही ज्ञानी कहा जाता है।

. मन को किसी एक स्थान पर केन्द्रित करना है, विधि कुछ भी हो। उसका बार- बार अभ्यास करने से चित्त की चंचल वृत्ति शांत हो जाती है। इस शांत अवस्था में ही उस चैतन्य की अनुभूति होती है।

( यह ग्रन्थ केवल किसी एक व्यक्ति के कथन पर आधारित नहीं है बल्कि एक ऐसा महासमुद्र है जो संसार की सभी नदियों और कूपों को जल प्रदान कर सकता है।

[7 यह किसी एक ग्रन्थ, मत या व्यक्ति को प्रमाण नहीं मानता बल्कि सत्य पर आधारित है, जहाँ भी सत्य प्रकट हुआ उसे स्वीकार करता है।

. स्वयं को जान लेना ही परमेश्वर को जान लेना है। दोनों एक ही चेतनतत्त्व के दो नाम मात्र हैं। मुक्ति का अर्थ ही है परम स्वतन्त्रता। यही परमज्ञान की स्थिति है।

. यह सारा जगत्‌ स्थूल, सूक्ष्म व पर रूप में विद्यमान है। बाद में आविर्भूत होने वाला पदार्थ अपने पूर्ववर्ती कारणतत्त्व में विद्यमान रहता ही है जैसे बीज में पूरा वृक्ष सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता ही है अन्यथा वह प्रकट कैसे हो सकता है? इस प्रकार विश्व के सभी पदार्थ अपने कारणतत्त्व में विद्यमान रहते हैं। अतः ये सभी परमेश्वर की स्वतन्त्र शक्ति का ही विलास है।

. भगवान शिव अपनी दो शक्तियों की सहायता से ही सृष्टि की रचना करते हैं ये हैं चेतन व शक्ति। जिस प्रकार दो अरणी लकड़ियों के रगड़ने से अग्नि उत्पन्न होती है उसी प्रकार उन दोनों शक्तियों की सहायता से ही जगत्‌ की रचना होती है। शिव इन दोनों का स्वामी है। वही परमेश्वर है।

यह सारा जगत्‌ मन के द्वारा ही कल्पित है। मन की विभिन्न वृत्तियाँ ही संसार की कल्पना करती हैं। मन जैसा देखना चाहता है संसार उसे वैसा ही दिखाई देता है। मन के परिवर्तन से संसार अपने आप बदल जाता है। उसे बदलने का कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। मन के विलीन होने पर संसार भी विलीन हो जाता है।

संसार बाधा नहीं है, यह मन ही बाधा है। मनुष्य ब्रह्म ही है किन्तु इस मन के कारण उसे संसार ही दिखाई दे रहा है। ब्रह्म नहीं दिखाई देता। मन के विलीन होने पर वह ब्रह्म ही हो जाता है।

विज्ञान भैरव की ये ११२ विधियाँ मन की वृत्तियों को गलित करने की ही विधियाँ हैं जिससे वह ब्रह्म स्वरूप ही हो जाता है।

दो विचारों के मध्य जो अवकाश है वह अवकाश ही उपयोगी है। वही स्थिर अवस्था है जिस पर ध्यान केन्द्रित करने से उस चेतनतत्त्व की अनुभूति हो जाती है।

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